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अ॒पो दे॒वीरुप॑ ह्वये॒ यत्र॒ गावः॒ पिब॑न्ति नः। सिन्धु॑भ्यः॒ कर्त्वं॑ ह॒विः॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

apo devīr upa hvaye yatra gāvaḥ pibanti naḥ | sindhubhyaḥ kartvaṁ haviḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒पः। दे॒वीः। उप॑। ह्व॒ये॒। यत्र॑। गावः॑। पिब॑न्ति। नः॒। सिन्धु॑ऽभ्यः। कर्त्व॑म्। ह॒विः॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:23» मन्त्र:18 | अष्टक:1» अध्याय:2» वर्ग:11» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:5» मन्त्र:18


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी वे जल किस प्रकार के हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्र) जिस व्यवहार में (गावः) सूर्य की किरणें (सिन्धुभ्यः) समुद्र और नदियों से (देवीः) दिव्यगुणों को प्राप्त करनेवाले (अपः) जलों को (पिबन्ति) पीती हैं, उन जलों को (नः) हम लोगों के (हविः) हवन करने योग्य पदार्थों के (कर्त्वम्) उत्पन्न करने के लिये मैं (उपह्वये) अच्छे प्रकार स्वीकार करता हूँ॥१८॥
भावार्थभाषाः - सूर्य की किरणें जितना जल छिन्न-भिन्न अर्थात् कण-कण कर वायु के संयोग से खैंचती हैं, उतना ही वहाँ से निवृत्त होकर भूमि और ओषधियों को प्राप्त होता है। विद्वान् लोगों को वह जल, पान, स्नान और शिल्पकार्य आदि में संयुक्त कर नाना प्रकार के सुख सम्पादन करने चाहिये॥१८॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्ताः कीदृश्य इत्युपदिश्यते।

अन्वय:

यस्मिन् व्यवहारे गावः सिन्धुभ्यो देवीरपः पिबन्ति, ता नोऽस्माकं हविः कर्त्वमहमुपह्वये॥१८॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अपः) या आप्नुवन्ति सर्वान् पदार्थान् ताः (देवीः) दिव्यगुणवत्त्वेन दिव्यगुणप्रापिकाः (उप) उपगमार्थे (ह्वये) स्वीकुर्वे (यत्र) (गावः) किरणाः (पिबन्ति) स्पृशन्ति (नः) अस्माकम् (सिन्धुभ्यः) समुद्रेभ्यो नदीभ्यो वा (कर्त्वम्) कर्तुम्। अत्र कृत्यार्थे तवै० इति त्वन्प्रत्ययः। (हविः) हवनीयम्॥१८॥
भावार्थभाषाः - सूर्य्यस्य किरणा यावज्जलं छित्त्वा वायुनाभित आकर्षन्ति, तावदेव तस्मान्निवृत्य भूम्योषधीः प्राप्नोति, विद्वद्भिस्तावज्जलं पानस्नानशिल्पकार्यादिषु संयोज्य नानाविधानि सुखानि सम्पादनीयानि॥१८॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - सूर्यकिरणे जितके जल नष्ट करतात अर्थात सूक्ष्म करून वायूच्या संयोगाने वर खेचतात तितकेच ते तेथून निघून भूमी व औषधींना प्राप्त होते. विद्वान लोकांनी ते पिणे, स्नान करणे व शिल्पकार्य करणे इत्यादीमध्ये संयुक्त करून नाना प्रकारचे सुख प्राप्त केले पाहिजे. ॥ १८ ॥